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Medical Astrology

चिकित्सा ज्योतिष Medical Rules In Astrology

ज्योतिष अनुसार चिकित्सा के योग- चिकित्सा ज्योतिष एक ऐसा माध्यम हैं जिसमें ग्रहों व भावों के माध्यम से कुंड़ली में स्वास्थ्य और दीर्घायु के योगों को समझा जाता हैं क्योंकि प्रत्येक नव ग्रह और बारह भाव किसी रोग से जुड़े हुयें हैं। जिसमें ज्योतिष कुंड़ली देख कर बता सकता हैं कि शरीर के इस भाग में इस तरह की बीमारी होने की सम्भावना होती हैं।

भाव- जिसमें छठा भाव बीमारी/रोग का संकेत, आंठवा भाव सर्ज़री, मृत्यु व खतरा और द्वादश भाव अस्पताल हैं। अगर कुंड़ली में लग्न का छठा, अष्टम व द्वादश भाव का संबंध हो तो व्यक्ति रोग, खतरें और अस्पताल में परेशान होता हैं।  

छठा भाव: चिकित्सा ज्योतिष में छठा भाव बीमारियों का मुख्य भाव हैं क्योंकि स्वास्थ्य में गिरावट तभी आएगी, जब इस भाव/भावेश की दशा चलेगी और इसका संबंध दूसरें नकारात्मक भावों व ग्रहों से हैं। बाकी बीमारी कौनसी होगी यह यहां होने वाले ग्रहों के प्रभाव पर निर्भर करता हैं।

अष्टम भाव: इस भाव को दीर्घायु के लिए देखा जाता हैं इसके साथ तीसरे भाव का विचार करना आवश्यक हैं क्योंकि वह अष्टम से अष्टम हैं। इसे मौत के भाव के साथ जीवन के अंत का भाव कहा जाता हैं। यह भाव आत्महत्या, अचानक दुर्घटना, दुर्भाग्य, पीड़ा, मानसिक चिंता, सर्ज़री और खतरे का भाव हैं। अगर इस भाव के साथ षष्टम भाव का सम्बंध बन जाये तो उस समय में बहुत सावधान हो कर रहना चाहिए।  

द्वादश भाव: यह भाव अस्पताल में भर्ती, बीमारी का बड़ना दुर्घटना, कारावास, खर्चें, गुप्त शत्रु, धोखे, हानि और वैवाहिक जीवन में वाद-विवाद का भाव हैं। जब षष्टम का संबन्ध द्वादश से बन जाये तो बीमारी के बाद अस्पताल जाने के योग बनते हैं।                अन्य सवालों के जवाब के लिए हमसें सम्पर्क करें।    

इसी के साथ प्रथम, पंचम और एकादश भाव बीमारी से निज़ात के भाव हैं। जब भी कोई बीमारी से पीडित होता हैं तब छठा भाव अवश्य प्रभावित होता हैं और जब उसका इलाज़ होता हैं तब पंचम भाव प्रभावित होता हैं।   

प्रथम भाव: जब किसी के स्वास्थ्य की बात हो तब प्रथम भाव बहुत महत्व रखता हैं। यह स्वस्थ शरीर, जीवन शक्ति और शुभ स्वास्थ्य को दिखाता हैं।

पांचवा भाव: यह भाव बीमारी के इलाज का भाव हैं यह बीमारी की हानि करता हैं। इस भाव की दशा में जातक की बीमारी में सुधार आता हैं।

एकादश भाव: इस भाव से जुड़े ग्रह भी बीमारी से निजात दिलाते हैं और जातक अस्पताल में भी होतो वह स्वास्थ हो कर घर वापिस आ जाता हैं।               

आईयें जाने कुंड़ली में किस ग्रह से कौनसी बीमारी परेशान कर सकती हैं।           कोई भी सवाल! जवाब के लिए अभी बात करे!

चिकित्सा ज्योतिष में नव ग्रहोंं के कारकत्व- 

सूर्य- सूर्य ग्रह आत्मा, सामान्य स्वास्थ्य, जीवनदायिनी और शारीरिक ऊर्जा का कारक हैं, चिकित्सा ज्योतिष में यह पित्त प्रकृति का ग्रह हैं। इसके बलवान होने से व्यक्ति स्वास्थ्य रहता हैं और उसकी रोग प्रतियोगिता क्षमता मज़बूत रहती हैं। सूर्य ग्रह हृदय, पेट, अस्थि तथा दाहिनी आँख का कारक हैं। चिकित्सीय क्षेत्र में सूर्य के कमज़ोर होने से सिरदर्द, गंजापन, चिड़चिड़ापन, ज्वर, जलन, सूजन से होने वाले रोग, यकृत तथा पित्त की थैली के कुछ रोग, हृदय रोग, नेत्र रोग, पेट की बीमारियां, त्वचा रोग, गिरने से या शस्त्र से चोट, विषपान, रक्त संचार में गड़बड़ी, मिर्गी, कुष्ट रोग और सांपों से भय रहता हैं।

चन्द्रमा- चंद्रमा ग्रह की मुख्य प्रकृति कफ हैं परन्तु इसमें कुछ तत्व वात का भी हैं। यह व्यक्ति के मन की स्थिरता तथा पुष्टता का कारक हैं। यह शरीर में बहने वाले द्रव रक्त, गूर्दा तथा बांयी आँख का कारक हैं। चंद्रमा मानसिक रोग संबंधी समस्या जैसे मानसिक विचलन, भावनात्मक अशांति, घबराना, अतिनिन्द्रा तथा सामान्य जड़ता का प्रतिनिधित्व करता हैं। चंद्रमा कमज़ोर हो तो कफ संबंधी रोग, क्षय रोग, जलोधर रोग, अजीर्ण, अतिसार, खून में कमी, शरीर में तरल पदार्थों का इकट्ठा होना, रक्त विषाक्तता, कंपन, ज्वर, पीलिया, जल तथा जलीय जंतुओं से भय, पशुओं के सींगो से होने वाले घाव इत्यादि का कारक चन्द्रमा हैं। चन्द्रमा और मंगल स्त्रियों के महावारी चक्र को नियंत्रित करते हैं। स्त्रियों में होने वाली महावारी में गड़बड़ी तथा स्त्रियों की प्रजनन प्रणाली के रोग चन्द्रमा के कारण होते हैं और स्त्रियों के स्तन रोग तथा माता के दूध के बहाव का कारक भी चन्द्रमा हैं।

मंगल- मंगल ग्रह की पित्त प्रकृति हैं। यह ग्रह आक्रमण, उत्तेजित तथा ऊर्जावान हैं। कुंड़ली में मंगल की स्थिति जातक के स्वास्थ्य, तेज एवं चेतना की प्रबलता को दिखाती हैं। मंगल सिर, अस्थि, मज्जा, पित्त, हीमोग्लोबिन, रक्त में लाल कणिकाएं, कोशिका, एण्डोमीट्रियम {गर्भाशय के अंदर की दीवार} अर्थात वह स्थान जहां बीज प्रत्यारोपण से शिशु बनता हैं वहां का कारक हैं। मंगल दुर्घटना, चोट, शल्य-क्रिया, जल जाना(सूर्य का प्रभाव होने पर), रक्त विकार, तंतुओं की फटन, उच्च रक्त चाप, पित्त-जन्य सूजन तथा उसके कारण होने वाला ज्वर, नसें, नाक से खून, महावारी चक्र, पित्ताशय की पथरी, शस्त्र से चोट,  विषाक्ता, ऊष्मा के कारण होने वाले रोग, अत्यधिक प्यास, फफोलें सहित बुखार, मानसिक विचलन{विशेष रूप से आक्रमक प्रकार का} नेत्र तथा प्लीहा तित्तली, विकार, मिर्गी, त्वचा पर खुजली, हड्डी टूटना, बवासीर, गर्भाशय के रोग, प्रसव तथा गर्भपात का कारक मंगल ग्रह हैं। सिर में चोट, लड़ाई में चोट तथा गर्दन से ऊपर के रोग भी मंगल से होता हैं।

बुध- चिकित्सा ज्योतिष में बुध ग्रह में तीनो वात पित्त कफ प्रकृति का हैं। बुध का संबंध जातक की बुद्धि से हैं। कुंड़ली में इसकी स्थिति तर्क तथा विवेक के सामर्थ्य को दिखाती हैं। प्रतिकूल बुध पापी चन्द्रमा के साथ मिलकर किसी की विचारधारा को व्यग्र कर सकता हैं तथा किसी मानसिक विचलन का कारण भी बन सकता हैं। बुध ग्रह त्वचा, गला, जीभ, बाहें, रीढ़ की हड्डी, याद्दाशत, नाक, फेफड़ा, पित्ताशय तथा अग्रमस्तिष्क का कारक हैं। यह मानसिक विचलन, धैर्यहीनता, मानसिक अस्थिरता, मानसिक जटिलता, अभद्र भाषा, दोषपूर्ण वाणी, कटु स्वभाव, चक्कर आना, त्वचा रोग, श्वेत रोग, कुष्ट रोग, नपुंसकता, कुछ नेत्र रोग, नाक-कान-गले का रोग, बहरापन, अचानक गिरना तथा दुःस्वप्न का कारक हैं।                      अपनी हेल्थ रिपोर्ट मंगवानें के लिए सम्पर्क करें।

गुरु- चिकित्सा ज्योतिष में गुरु ग्रह की कफ प्रकृति हैं। अत्यधिक शुभ ग्रह होने के कारण यह जातक को रोगों से बचाता हैं तथा कुंड़ली में अनेक कष्टों व पाप प्रभावों को नष्ट करता हैं। लेकिन वक्री गुरु की शुभता में कमी आजाती हैं। गुरु ग्रह जिगर, गूर्दा, दायां कान, पित्त की थैली, तित्तली, अग्न्याशय का कुछ भाग, कान, आलस तथा शरीर में चर्बी का कारक हैं। गुरु ग्रह गूर्दा, जिगर विकार, पित्त की थैली के रोग, तित्तली के रोग, मोटापा, खून की कमी, ज्वर, मूर्छा, कर्ण रोग और मधुमेह का कारक हैं। मंदगामी ग्रह होने के कारण इसके द्वारा होने वाले रोग प्राय: दीर्धकाल होते हैं। 

शुक्र- चिकित्सा ज्योतिष में शुक्र ग्रह वात व कफ प्रकृति का होता हैं। शुक्र व्यक्ति की यौन क्रियाओं को नियंत्रित करता हैं। यदि शुक्र अधिक पीड़ित हो या अशुभ स्थान में हो तो यौन विकार तथा मैथुन संबंधित रोग देता हैं। शुक्र ग्रह को चेहरा, दृष्टि, वीर्य, जवान दिखना, झुरीयां, पसीने की ग्रंथियां, जननांग, मूत्र प्रणाली, अश्रुगंथि का कारक कहा गया हैं। यह आंत्रपुच्छ तथा अग्न्याशय के कुछ भाग का भी कारक हैं। शुक्र ग्रह एक जलीय ग्रह हैं और इसका संबंध शरीर की हार्मोनल प्रणाली से हैं। शुक्र ग्रह यौन विकार, जननांग के रोग, मूत्र प्रणाली, चेहरे के रोग, नेत्र रोग, मोतिया बिंद, दांतो का रोग, बाल, अश्रुग्रंथि के रोग, गुर्दें तथा मूत्र थैली में पथरी, आलस्य, थकान तथा शरीर का निस्तेज होना, मोतीझरा, आंत्रपुच्छ विकार एवं हारमोनल संबंधी विकारों को दिखाता हैं।

शनि- चिकित्सा ज्योतिष में शनि ग्रह वात तथा कुछ कफ प्रकृति हैं। शनि ग्रह सबसे मंद गति से चलने वाला ग्रह हैं और इस कारण इससे होने वाले रोग असाध्य या दीर्ध कालिन होते हैं। शनि ग्रह टाँगे, पैर, जोड़, घुटने, गठिया, नाड़ी, बड़ी आंत का अंतिम भाग, लसिका वाहिनी तथा गुदा का कारक हैं। यह दीर्धकालिकता, असाध्यता, उन्माद पक्षाघात, परिश्रम से शीघ्र थकान, टांग तथा पैर के रोग व चोट, अवसाद तथा खिन्नता के कारण मानसिक अव्यवस्था, पेट के रोग, पेड़ के गिरने तथा पत्थर से चोट लगना आदि को दिखाता हैं।

राहु- चिकित्सा ज्योतिष में राहु ग्रह को मंदगति, फूहड़पन, हिचकी, उन्माद, अदृष्ट भय, कुष्ट, शक्तिहीनता, अर्शरोग, दीर्धकालिक वर्ण तथा छाले, असाध्य रोग, विषाक्तता, खराब दांत, मुहं की बीमारी, आत्महत्या करना, पागलपन, अधिक मलमूत्र, सर्प दंश तथा पैरों के रोग का कारक कहा गया हैं। चन्द्रमा के साथ मिलकर राहु विभिन्न प्रकार के भय देता हैं। शनि के साथ संबंध होने के कारण यह रोगों की दीर्धकालिकता तथा असाध्यता का भी घोतक हैं।

केतु- चिकित्सा ज्योतिष में केतु ग्रह को राहु ग्रह के रोगों की तरह मानना चाहिए। केतु अनश्चित कारण वाले रोग, महामारी, छाले युक्त ज्वर, जहरीले संक्रमण, पैरों के रोग, पैरों के नाखून और बिवाईयां, गुदा, नपुंसकता, आंत्रकृमिक, बहरापन, दोषपूर्ण वाणी, रोग निदान में त्रुटि का कारक हैं। मंगल के साथ सदृश होने के कारण केतु ग्रह शल्य क्रिया को भी दिखाता हैं।

चिकित्सा ज्योतिष में भाव व राशियां-

प्रथम भाव और मेष राशि:- कुंड़ली के पहले भाव से सिर, सिर में दर्द, चेहरा, मस्तिष्क, हड्डियां, बाल, दीमाग की कमज़ोरी, मानसिक रोग शारीरिक स्वास्थ्य का पता चलता हैं।   

द्वितीय भाव और वृष राशि:- कुंड़ली के दूसरे भाव से मारक भाव के साथ चेहरा, जीभ, दांत, आवाज, गला, लार, दांत, स्वर/स्वास नलिका, गले की हड्डी, नेत्र, कान की बीमारी का विचार किया जाता हैं।  

तृतीय भाव और मिथुन राशि:- कुंड़ली के तीसरें भाव से कंधे, हाथ, फेफडे, रक्त, सांस लेना, खांसी दमा, गला, कान और हाथ में होने वाले विकार जैसे लूलापन आदि का विचार किया जाता हैं।   

चतुर्थ भाव और कर्क राशि:- कुंड़ली के चौथे भाव को स्तन, छाती, पेट, दिल, फेफडे, पाचन अंग, पसलियां, मांनसिक विचार और पागलपन के लिए देखा जाता हैं।   

पंचम भाव और सिंह राशि:- कुंड़ली के पांचवें भाव से अरुचि, पित्त रोग, जिगर, गुर्दे, ह्रदय, पेट, गर्भ, आंते, पीछे की हड्डी, स्पाईनल, नसें, फाईबर और नाभि के ऊपर के पेट के रोग को देखा जाता हैं।    

षष्टम भाव और कन्या राशि:- कुंड़ली के छटे भाव को नाभि के नीचे के क्षेत्र, कमर, किड़नी, अपेंडिक्स, हर्निया, उदर, नाभि, आंते, लीवर, नर्वस सिस्टम के लिए देखा जाता हैं।  

सप्तम भाव और तुला राशि:- कुंड़ली के सांतवें भाव को मधुमेह, प्रदर, पथरी, किड़नी, स्त्री का गर्भाशय, त्वचा, ओवरी, यूरीन की परेशानी और बस्ति में होने वाले रोगों के लिए देखा जाता हैं।  

अष्टम भाव और वृश्चिक राशि:- कुंड़ली के आंठवें भाव को गुप्त स्थान कहते हैं, जिससे गुप्त रोग, वीर्य विकार, भगंदर, वृषण रोग, मूत्राशय, गुदा, पाईल्स, हर्निया, स्त्री की महावारी को भी देखा जाता हैं।   

नवम भाव और धनु राशि:- कुंड़ली के नौवे भाव को यकृत के रोग, कुल्हे, जांघे, नसें, हीप्स, रक्त विकार, वायु विकार और मज्जा के रोगों के लिए देखा जाता हैं।   

दशम भाव और मकर राशि:- कुंड़ली के दसवें भाव को गठिया, कम्पवात, चर्म रोग, घुटनें, हाथ, जोड़ के लिए देखा जाता हैं।  

एकादश भाव और कुम्भ राशि:- कुंड़ली के ग्यारवें भाव को पैर, शीत विकार, रक्त विकार, अंकल, टखने, बायां कान के लिए देखा जाता हैं।  

द्वादश भाव और मीन राशि:- कुंड़ली के बारहवें भाव को पैर, एलर्जी, कमज़ोरी, पोलियों, रोग प्रतिरोध क्षमता, बाई आंख के लिए देखा जाता हैं।        

वेदिक ज्योतिष के अनुसार विभिन्न रोगों के योग:                   बीमारी से जुड़े अन्य ऑर्टीकल पढ़ने के लिए यहां देखें।  

  • एकादशेश षष्ट भाव में हो तो विविध रोग देता हैं।
  • शनि और मंगल ग्रह छठे भाव में राहु व सूर्य ग्रह से दृष्ट हो तो दीर्घस्थाई रोग देते हैं।
  • राहु या केतु ग्रह सप्तम भाव में या शनि ग्रह अष्टम भाव में हो और चंद्र ग्रह लग्न में हो तो अजीर्ण होता हैं।
  • गुरु तथा राहु लग्न में दंत रोग देते हैं।
  • षष्टेश तृतीय भाव में हो तो उदर रोग देता हैं।
  • शनि षष्ट या अष्टम भाव में पैरों में कष्ट देता हैं।
  • राहु या केतु षष्ट भाव में हो तो दंत या ओष्ठ रोग होता हैं।
  • लग्नेश मंगल या बुध की राशि में हो तथा शत्रु से दृष्ट हो तो गुदा क्षेत्र में रोग होता हैं।
  • कर्क या वृश्चिक नवांश में चन्द्रमा पाप युक्त हो तो गुप्त रोग होता हैं। गुप्त रोग का अर्थ वह रोग हो सकता हैं, जिसे व्यक्ति अन्य लोगों से छुपाता हैं या यौन सम्बन्धों से होने वाला रोग हो सकता हैं।
  • मंगल बुध तथा लग्नेश एक-साथ सिंह राशि में चतुर्थ या द्वादश भाव में हो तो गुदा या गुदा क्षेत्र में रोग हो सकता हैं।
  • अष्टम भाव में पाप ग्रह या द्वादश भाव में गुरु गुप्त रोग देता हैं।
  • षष्ठेश बुध ग्रह मंगल ग्रह के साथ हो तो जननांग में रोग होता हैं।

अष्टमेश अष्टम भाव में हो तो शरीर रोगोन्मुख होता हैं।

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