चिकित्सा ज्योतिष में ग्रहोंं के कारकत्व- वैदिक ज्योतिष में हम ग्रहों और भावों के माध्यम से चिकित्सा और रोग के बारे में भी जान सकते हैं। जातक की कुंड़ली में जो ग्रह पीड़ित एवं अरिष्टकारक होते हैं, उन्हीं ग्रहों के कारकत्वों के अनुसार जातक को रोग परेशान करते हैं। आईये जाने की किस ग्रह के पीड़ित होने से हमें कौनसा रोग हो सकता हैं।
सूर्य- सूर्य आत्मा, सामान्य स्वास्थ्य, जीवनदायिनी और शारीरिक ऊर्जा का कारक हैं चिकित्सा ज्योतिष में यह पित्त प्रकृति का ग्रह हैं। इसके बलवान होने से व्यक्ति स्वास्थ्य रहता हैं और उसकी रोग प्रतियोगिता क्षमता मज़बूत रहती हैं। यह हृदय, पेट, अस्थि तथा दाहिनी आँख का कारक हैं। चिकित्सीय क्षेत्र में सूर्य के कमज़ोर होने से सिरदर्द, गंजापन, चिड़चिड़ापन, ज्वर, जलन, सूजन से होने वाले रोग, यकृत तथा पित्त की थैली के कुछ रोग, हृदय रोग, नेत्र रोग, पेट की बीमारियां, त्वचा रोग, गिरने से या शस्त्र से चोट, विषपान, रक्त संचार में गड़बड़ी, मिर्गी, कुष्ट रोग और सांपों से भय रहता हैं।
चन्द्रमा- चंद्रमा की मुख्य प्रकृति कफ हैं परन्तु इसमें कुछ तत्व वात का भी हैं। यह व्यक्ति के मन की स्थिरता तथा पुष्टता का कारक हैं। यह शरीर में बहने वाले द्रव रक्त, गूर्दा तथा बांयी आँख का कारक हैं। चंद्रमा मानसिक रोग संबंधी समस्या जैसे मानसिक विचलन, भावनात्मक अशांति, घबराना, अतिनिन्द्रा तथा सामान्य जड़ता का प्रतिनिधित्व करता हैं। चंद्रमा कमज़ोर हो तो कफ संबंधी रोग, क्षय रोग, जलोधर रोग, अजीर्ण, अतिसार, खून में कमी, शरीर में तरल पदार्थो का इकट्ठा होना, रक्त विषाक्तता, कंपन, ज्वर, पीलिया, जल तथा जलीय जंतुओं से भय, पशुओं के सींगो से होने वाले घाव इत्यादि का कारक चन्द्रमा हैं। चन्द्रमा और मंगल स्त्रियों के महावारी चक्र को नियंत्रित करते हैं। स्त्रियों में होने वाली महावारी में गड़बड़ी तथा स्त्रियों की प्रजनन प्रणाली के रोग चन्द्रमा के कारण होते हैं और स्त्रियों के स्तन रोग तथा दूध के बहाव का कारक भी चन्द्रमा हैं। ज्योतिष/अंक ज्योतिष सीखें!
मंगल- मंगल की पित्त प्रकृति हैं। यह ग्रह आक्रमण तथा ऊर्जावान हैं। कुंड़ली में मंगल की स्थिति जातक के स्वास्थ्य, तेज एवं चेतना की प्रबलता को दिखाता हैं। मंगल सिर, अस्थि, मज्जा, पित्त, हीमोग्लोबिन, रक्त में लाल कणिकाय, कोशिका, एण्डोमीट्रियम {गर्भाशय के अंदर की दीवार} अर्थात वह स्थान जहां बीज प्रत्यारोपण से शिशु बनता हैं, वहां का कारक हैं। मंगल दुर्घटना, चोट, शल्य-क्रिया, जल जाना/सूर्य के साथ, रक्त विकार, तंतुओं की फटन, उच्च रक्त चाप, पित्त-जन्य सूजन तथा उसके कारण होने वाला ज्वर, नसें, नाक से खून, महावारी चक्र, पित्ताशय की पथरी, शस्त्र से चोट, विषाक्ता, ऊष्मा के कारण होने वाले रोग, अत्यधिक प्यास, फफोलेंं सहित बुखार, मानसिक विचलन {विशेष रूप से आक्रमण प्रकार का} नेत्र तथा प्लीहा तित्तली, विकार, मिर्गी, त्वचा पर खुजली, हड्डी टूटना, बवासीर, गर्भाशय के रोग, प्रसव तथा गर्भपात का मंगल कारक हैं। सिर में चोट, लड़ाई में चोट तथा गर्दन से ऊपर के रोग भी मंगल से होता हैं। अन्य ग्रहों के बारे में विस्तार से जानें!
बुध- चिकित्सा ज्योतिष में बुध में तीनों वात पित्त कफ की प्रवृति हैं। बुध का संबंध जातक की बुद्धि से हैं। कुंड़ली में इसकी स्थिति तर्क तथा विवेक के सामर्थ को दिखाती हैं। प्रतिकूल बुध पापी चन्द्रमा के साथ मिलकर किसी की विचारधारा को व्यग्र कर सकता हैं तथा किसी मानसिक विचलन का कारण भी बन सकता हैं। बुध त्वचा, गला, जीभ, बाहें, रीढ़ की हड्डी, याद्दाशत, नाक, फेफड़ा, पित्ताशय तथा अग्रमस्तिष्क का कारक हैं। यह मानसिक विचलन, धैर्यहीनता, मानसिक अस्थिरता, मानसिक जटिलता, अभद्र भाषा, दोषपूर्ण वाणी, कटु स्वभाव, चक्कर आना, त्वचा रोग, श्वेत रोग, कुष्ट रोग, नपुंसकता, कुछ नेत्र रोग, नाक कान गले का रोग, बहरापन, अचानक गिरना तथा दुःस्वप्न का कारक हैं। आपके सवाल हमारे जवाब, यहा क्लिक करें!
गुरु- चिकित्सा ज्योतिष में गुरु की कफ प्रकृति हैं। अत्यधिक शुभ ग्रह होने के कारण यह जातक को रोगोंं से बचाता हैं तथा कुंड़ली में अनेक कष्टों व पाप प्रभावों को नष्ट करता हैं। गुरु जिगर, गूर्दा, दायां कान, पित की थैली, तित्तली, अग्न्याशय का कुछ भाग, कान, आलस तथा शरीर में चर्बी का कारक हैं। गुरु गूर्दा, जिगर विकार, पित की थैली के रोग, तित्तली के रोग, मोटापा, खून की कमी, ज्वर, मूर्छा, कर्ण रोग, मधुमेह का कारक हैं। मंदगामी ग्रह होने के कारण इसके द्वारा होने वाले रोग प्राय: दीर्धकाल होते हैं। हमसें मिलनें या बात करने के लिए यहां क्लिक करें!
शुक्र- चिकित्सा ज्योतिष में शुक्र वात व कफ की प्रक्रति होती हैं। शुक्र व्यक्ति की यौन क्रियाओं को नियंत्रित करता हैं। यदि शुक्र अधिक पीड़ित हो या अशुभ स्थान में हो तो यौन विकार तथा मैथुन संबंधी रोग देता हैं। शुक्र को चेहरा, दृष्टि, वीर्य, जवान दिखना, झुरीयां, पसीने की ग्रंथियां, जननांग, मूत्र प्रणाली, अश्रुगंथि का कारक कहा गया हैं। यह आंत्रपुच्छ तथा अग्न्याशय के कुछ भाग का भी कारक हैं। शुक्र एक जलीय ग्रह हैं और इसका संबंध शरीर की हार्मोनल प्रणाली से हैं। शुक्र यौन विकार, जननांग के रोग, मूत्र प्रणाली, चेहरे के रोग, नेत्र रोग, मोतिया बिंद, दांतो का रोग, बाल, अश्रुग्रंथि के रोग, गुर्दे तथा मूत्र थैली में पथरी, आलस्य, थकान तथा शरीर का निस्तेज होना, मोतीझरा, आंत्रपुच्छ विकार एवं हारमोनल संबंधी विकारों को दिखाता हैं।
शनि- चिकित्सा ज्योतिष में शनि वात तथा कुछ कफ प्रकृति हैं। यह सबसे धीरे चलने वाला ग्रह हैं और इस कारण इससे होने वाले रोग असाध्य या दीर्ध कालिन होते हैं। शनि टाँगे, पैर, जोड़, घुटने, गठिया, नाड़ी, बड़ी आंत का अंतिम भाग, लसिका वाहिनी तथा गुदा का कारक हैं। यह दीर्धकालिकता, असाध्यता, उन्माद पक्षाघात, परिश्रम से थकान, टांग तथा पैर के रोग व चोट, अवसाद तथा खिन्नता के कारण मानसिक अव्यवस्था, पेट के रोग, पेड़ के गिरने तथा पत्थर से चोट लगना आदि को दिखाता हैं।
राहु- चिकित्सा ज्योतिष में राहु को मंदगति, फूहड़पन, हिचकी, उन्माद, अदृष्ट भय, कुष्ट, शक्तिहीनता, अर्शरोग, दीर्धकालिक वर्ण तथा छाले, असाध्य रोग, विषाक्तता, खराब दांत, मुह की बीमारी, आत्महत्या करना, पगलपन, अधिक मलमूत्र, सर्प दंश तथा पैरों के रोग का कारक हैं। चन्द्रमा के साथ मिलकर राहु विभिन्न प्रकार के भय देता हैं। शनि के साथ संबंध होने के कारण यह रोगों की दीर्धकालिकता तथा असाध्यता का भी घोतक हैं।
केतु- चिकित्सा ज्योतिष में केतु के सभी रोग को राहु की तरह मानना चाहिए। केतु अनश्चित कारण वाले रोग, महामारी, छाले युक्त ज्वर, जहरीले संक्रमण, पैरों के रोग, पैरों के नाखून और बिवाईयां, गुदा, नपुंसकता, आंत्रकृमिक, बहरापन, दोषपूर्ण वाणी, रोग निदान में त्रुटि का कारक हैं। मंगल के साथ सदृश होने के कारण केतु शल्य क्रिया को भी दिखाता हैं।
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